..... ताकि पत्रकारिता महज़ धन्धा न रह जाय (एलएन शीतल, वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल).3 मई.

Category : आजाद अभिव्यक्ति | Sub Category : सभी Posted on 2022-05-03 02:00:30


..... ताकि पत्रकारिता महज़ धन्धा न रह जाय  (एलएन शीतल, वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल).3 मई.


हिन्दी पत्रकारिता के गौरवशाली अतीत और अन्धकारमय वर्तमान से गुजरते हुए, जब हम भविष्य की चुनौतियों पर दृष्टिपात करते हैं, तो हमें सम्भावनाओं के अनेक टापू दिखायी देते हैं. कहीं ये टापू, बाज़ारवाद के मौज़ूदा ज्वार में न डूब जायें, इसके लिए हमें उन सवालों के माकूल जवाब देने होंगे, जिनकी वज़ह से इन टापुओं के दरकने या बेवक्त डूबने का अन्देशा है.
पश्चिम के सांस्कृतिक हमले और आर्थिक घुसपैठ
वर्तमान में, पूरा भारतीय समाज पश्चिम के सांस्कृतिक हमले और आर्थिक घुसपैठ की चपेट में है. वह दरक रहा है. विडम्बना यह है कि लगभग सभी अख़बार इस हमले और घुसपैठ को रोकने तथा पाठक को उससे आगाह करने के बजाय ख़ुद उसके वाहक बन बैठे हैं. चूँकि, अखबार निकालने वाले ज़्यादातर लोग वही हैं, जो उस घुसपैठ से लाभान्वित हो रहे हैं, इसलिए वे पहरुए की भूमिका निभाने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं. भविष्य में पश्चिम का बाज़ार और ज़्यादा हावी होगा, सांस्कृतिक हमला और ज़्यादा तेज होगा. नतीजतन हमारे मूल्य तिरोहित होंगे, समाज विखण्डित होगा, और कुल मिलकर हम कमज़ोर होंगे. अन्देशा इस बात का है कि अखबार अपने मौजूदा चरित्र को पकड़े रहने पर आमादा रहेंगे. मात्र पाठकीय दवाब ही ऐसा अकेला जरिया है, जिसके बूते अख़बारों को सही रस्ते पर लाया जा सकता है. इस लिए, भविष्य के वास्ते पाठकों की दोहरी ज़िम्मेदारी है की वे, न केवल उस ख़तरे से ख़ुद आगाह रहें,बल्कि अख़बारों की दशा और दिशा को भी नियन्त्रित रखें.
समाज की सामूहिक सोच को बाज़ारू बनाने पर आमादा है मीडिया
मीडिया का काम जनरुचि को परिष्कृत करना और सकारात्मक बातों के प्रति रुझान पैदा करना भी होता है. लेकिन मीडिया समाज की सामूहिक सोच को विकृत करने और उसे बाज़ारू बनने पर आमादा है, क्योंकि उपभोक्तावाद का यही तक़ाज़ा है. हमारा मीडिया बाज़ारवाद को बढ़ावा देने वाला कारगर औजार साबित हुआ है. तल्ख़ हक़ीक़त यह है कि मीडिया नित नये उत्पादों की ज़रूरत पैदा करने और फिर उनकी बिक्री बढ़ाने का माध्यम मात्र बनकर रह गया है. वह आम आदमी की चिन्ताओं को कारगर ढंग से पेश नहीं करके उनकी आपराधिक उपेक्षा कर रहा है. वह उच्च वर्ग में शामिल होने को आतुर मध्यम वर्ग का नुमाइन्दा ज़्यादा नज़र आता है.
अर्श से फ़र्श तक फैला भ्रष्टाचार
चिन्ता की सबसे अहम वजह है ‘‘अर्श से फ़र्श तक फैला भ्रष्टाचार’’, जिसे सबसे पहले राष्ट्रीय मान्यता दी थी तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गान्धी ने, जिन्होंने कहा था ‘ऐसा कौन-सा देश है, जहाँ भ्रष्टाचार नहीं है’’. आज हालात इस कदर बिगड़ गये हैं कि जो भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हैं, उन्हें ‘लल्लू’ मान लिया जाता है. अनेक बड़े मीडिया घराने भ्रष्टाचार से दौलत के टापू खड़े करने में सबसे आगे हैं. ऐसे में, उनसे यह उम्मीद करना निरी मूर्खता ही माना जायेगा कि वे देश के सबसे बड़े शत्रु ‘भ्रष्टाचार’ के खिलाफ़ कोई मुहिम छेड़ेंगे अथवा ऐसी किसी मुहिम का हिस्सा बनेंगे.
मीडिया का मकसद रह गया विज्ञापनदाताओं की हित-रक्षा
लगभग सभी अख़बार अपने पाठकों को तटस्थ सूचनाओं और निष्पक्ष विश्लेषण से वंचित रखकर समाचार और विचार में पूर्वाग्रह ठूँस रहे हैं. वे विज्ञान के नये आविष्कारों से अवगत कराने के स्थान पर विज्ञापनी उत्पादों को महिमामण्डित करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहे हैं. उनकी यह भूमिका एक बड़े अशुभ की चेतावनी है. वे शहरी पाठकों को अपनी सुविधा से सामग्री परोसते हैं. परोसने की इस शैली का उद्देश्य पाठकों के दीर्घ कालिक हितों की रक्षा करना कम विज्ञापन दाताओं के हितों की रक्षा करना ज्यादा है. दूसरी तरफ वे ग्रामीण क्षेत्र की घोर उपेक्षा कर रहे हैं. ऐसा वे अनजाने में नहीं, जानबूझ कर कर रहे हैं. ग्रामीणों की कौन सी समस्याएँ हैं, इसकी बहुत कम चिन्ता अख़बारों को है. ज्यादातर अख़बार सियासी बयानबाजी, नेताओं की ऊलज़लूल हरकतों, लफ्फाजियों और झूठी घोषणाओं तथा छवासवीर तथाकथित समाजसेवियों की विज्ञप्तियों से पते होते हैं. जीवन के हर क्षेत्र में क्षुद्र राजनीतिक दखलन्दाजी जिस खतरनाक हद तक बढ़ी है, उसका प्रतिकार करने में अख़बार नाकाम रहे हैं. इसलिए अख़बारों में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि देश की आबादी का वह बड़ा हिस्सा, जो न तो विज्ञापनदाता है, और न ही नित नये विज्ञापनों से कृतार्थ होने की हालत में हैं, उसके दीर्घकालिक हितों को पोषित करने वाली सामग्री समुचित तयशुदा स्थान अनिवार्यतः मिले. इसके लिए यदि कोई कानून भी बनाना पड़े तो, बनाया जाना चाहिए.
मुख्य उत्पाद के साथ एक अन्य उत्पाद मुफ़्त देने के भ्रामक विज्ञापन
बाज़ारवाद की अन्धी होड़ में मुख्य उत्पाद के साथ एक अन्य उत्पाद मुफ़्त देने के भ्रामक विज्ञापन, दरअसल उपभोक्ताओं के साथ धोखाधड़ी है. यह धोखाधड़ी तमाम धन्धों में धड़ल्ले से चल रही है. हालांकि यह होनी तो इन धन्धों में भी नहीं होनी चाहिए, लेकिन अख़बारों में तो हरगिज़ नहीं. आज अख़बारों में ऐसी लम्बी-चौड़ी विज्ञापनबाजी को पाठक-प्रोत्साहन का नाम दिया जाता है. उनसे सवाल किया जाना चाहिए कि यदि उनके पास पाँच या पचास करोड़ रुपये के पुरस्कार देने के लिए धन है तो, वे विज्ञापनदाता की दहलीज पर माथा रगड़ने या विज्ञापन ऐंठने के लिए कमज़ोर विज्ञापनदाताओं को धमकाने की हरकतें बन्द क्यों नहीं कर देते? यानि, यह तय किया जाना चाहिए कि कोई भी अख़बार इस तरह के छद्म प्रलोभनों से अपने पाठकों को हरगिज नहीं भरमायेंगे.
इन्सानी संसाधनों को भी मिले मशीनी संसाधनों जैसी तवज्जो
चूँकि प्रेस को अनौपचारिक तौर पर लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ माना गया है, इसलिए परम आवश्यक है कि हमारे अख़बारों की उत्पादन-प्रक्रिया पारदर्शी हो, और उसमें पाठकीय सरोकारों के प्रति जवाबदेही भी तय हो. इसे सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी है कि मीडिया में ऐसे लोग आयें, जो योग्य हों, अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति वचनबद्ध हों, तथा वे अन्य व्यवसायों में कार्यरत लोगों की तुलना में मिशनरी जज़्बे से ज़्यादा भरे हों. ऐसे युवाओं को पत्रकारिता में लाने के लिए एक प्रतिस्पर्धी माहौल, सुनिश्चित भविष्य, तथा अच्छे वेतन अनिवार्य हैं. सभी अख़बार मालिक अपने मशीनी संसाधनों जितनी तवज्जो अपने इन्सानी संसाधनों को भी दें, यह निहायत ज़रूरी है. वर्तमान में अख़बारों के आन्तरिक ढांचे में सबसे बड़ा ग्रहण यही लगा है कि पत्रकारों की गुणवत्ता को तिरोहित कर प्रबन्धन परस्त नरमुण्डों को प्रश्रय देने की परिपाटी चल पड़ी है. ऐसे पालित पत्रकारों द्वारा वेतन पर ज्यादा जोर नहीं दिये जाने के पर्याप्त निजी कारण होते हैं. इसके लिए मौजूदा दोषपूर्ण कानूनी प्रावधानों को बदलना होगा. जब सरकारों में बैठे लोग अपने निजी हितों के लिए येन-केन-प्रकारेण अपने मन मुताबिक ख़बरें छपवा लेते हैं, तो वही लोग अपने उस कौशल, धनबल और सत्ताबल का इस्तेमाल मीडिया की दशा और दिशा सुधारने के लिए क्यों नहीं कर सकते? मीडिया संस्थानों के लिए यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि वे सुस्थापित शर्तों को पूरा करने पर ही सरकारी और ग़ैर सरकारी विज्ञापन पा सकेंगे.
मीडिया के संसाधनों में हो पारदर्शिता अनिवार्य
चूँकि, अख़बार नाम की संस्था के लिए पारदर्शिता और जवाबदेही अनिवार्य है, इसलिए यही पारदर्शिता अख़बारों के संसाधनों पर भी लागू होनी चाहिए. किसी भी पत्र-पत्रिका को शुरू करने की अनुमति दिये जाने से पहले यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अख़बार के प्रकाशन और शुरूआती पाँच वर्षों के लिए संचालन पर कितनी राशि ख़र्च होगी, वह कहाँ से आयेगी, और अख़बार चलाने वाले का आर्थिक आधार क्या है. इसी के साथ मीडिया के क्षेत्र में प्रवेश करने के इच्छुक महानुभावों को अनुमति देने से पहले उनके पिछले 20 वर्षों के आर्थिक अतीत की जाँच-पड़ताल भी बारीकी से की जानी चाहिए. ज्यादा उचित तो यह होगा कि अख़बार चलाने वाले प्रतिष्ठान केवल अख़बार ही चलायें, कोई और धन्धा न करें; क्योंकि अख़बार धन्धा तो हो गये हैं, लेकिन उन्हें महज धन्धा ही नहीं मन जा सकता. अन्य धन्धों की तुलना में, वे अन्ततः एक मिशन भी हैं, लोकतन्त्र चौथा स्तम्भ भी हैं, और जन-प्रतिष्ठान भी!    
मीडिया एक वर्ग की शर्मनाक हरक़तों पर ख़ुद शर्म भी शर्मसार
कोई शक़ नहीं कि समाचार पत्र को चलाने के लिए विज्ञापन अनिवार्य हैं, लेकिन ऐसा भी हरगिज़ न हो कि विज्ञापनों कि भीड़ में समाचार ढूंढ़ने पड़ें. पाठकों को गुमराह करने, फुसलाने, तथा उकसाने के लिए उत्पादों की प्रचार-सामग्री को ख़बरों के रूप में परोसे जाने के चलन पर रोक लगाने का काम भी वह आयोग करे. वह आयोग यह भी सुनिश्चित करे कि कोई भी सत्ता-प्रतिष्ठान ‘मित्र’ और ‘शत्रु’ अख़बारों की आन्तरिक तथा गुप्त सूची बनाकर विज्ञापनों की बन्दरबाँट न कर पाये. चुनावों के समय मीडिया के एक बड़े वर्ग की शर्मनाक हरक़तों पर तो ख़ुद शर्म भी बेहद शर्मसार है. ऐसी स्थिति में, यदि यह सुझाव अमल में लाया जाता है, तो पाठकों को मोलने वाली सामग्री का स्तर सुधरेगा, उन्हें ज़्यादा सामग्री मिलेगी तथा अख़बारों की आज़ादी अप्रभावित रह सकेगी.
पत्रकार नहीं, पीआरओ पैदा कर रहे हैं मीडिया संस्थान
हमारे पत्रकारिता संस्थान पत्रकार नहीं, पीआरओ पैदा कर रहे हैं. और वह भी अधकचरे. इस पर भी उन्हें मुगालता यह कि उनकी आधी-अधूरी जानकारी ही अन्तिम सच है. जब वे किसी अख़बार से जुड़ते हैं तो उनके उस ‘ज्ञान’ की पोल पहले दिन ही खुल जाती है. यह दुरावस्था भविष्य के लिए एक भयावह संकेत है. आज दरकार इस बात की है कि समाचार एजेंसियों की तर्ज पर सभी मीडिया संस्थान अपने-अपने संसाधनों के आंशिक योगदान से ऐसे प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करें, जिनके प्रबन्धन में उनकी भागेदारी हो और उनमें कड़ी प्रतिस्पर्धा से सफल होकर निकले प्रॉफ़ेशनल ही नियुक्त किये जायें. मौजूदा पाठ्यक्रम में, बदलती चुनौतियों के अनुरूप आमूल-चूल परिवर्तन किया जाये.
पूरी शिद्दत से निभा रहे हिन्दी से ‘शत्रुता’
ज्यादातर हिन्दी मीडिया कर्मी अज्ञानता के चलते हिन्दी से अपनी ‘शत्रुता’ पूरी शिद्दत से निभा रहे हैं. हिन्दी को तबाह करने की मुहिम में हिन्दी अख़बार ही सबसे आगे हैं. ये अख़बार हिन्दी की जगह हिंग्लिश को बढ़ावा देने के अपने अभियान में पूरी ताक़त से जुटे हैं. ये समाचार पत्र दो अपराध एक साथ कर रहे हैं. पहला - मनमानी वर्तनियाँ थोपना, और दूसरा - हिंग्लिश का अन्धाधुन्ध उपयोग। सहज और सरल हिन्दी शब्दों की जगह नितान्त अनावश्यक अँगरेज़ी शब्दों को बोलने या देवनागरी लिपि में लिखने वाले लोग हिन्दी का कितना नुक़सान कर रहे हैं, इसकी कल्पना तक नहीं है उन्हें. ऐसे लोग वे हैं, जिन्हें न हिन्दी आती है, न अँगरेज़ी. लोग हिंग्लिश का इस्तेमाल दूसरों को कमतर दिखाकर खुद को अँगरेज़ जताने के लिए ही करते हैं. हिन्दी की त्रासदी यह है कि हिन्दी के बूते दौलत के टापू बना रहे, हिन्दी के जरिये अपना पेट पालकर शान बघार रहे और अन्य अनेक तरीकों से हिन्दी के नाम पर धन्धेबाजी कर रहे, भाषाई संकर नस्ल के लोग ही छाये हुए हैं हिन्दी मीडिया में. मालिक पीछे हैं न उनके नौकर. यहाँ, आशय यह कतई नहीं कि हिन्दी में अँगरेज़ी के शब्दों का इस्तेमाल बिल्कुल नहीँ होना चाहिए. निवेदन सिर्फ़ इतना है कि पूरी तरह से घुल-मिल गये शब्दों का प्रयोग ही किया जाये; जैसे - रेलवे स्टेशन, स्कूल, पुलिस आदि.
भाषा के स्तर पर बेहद दरिद्र हैं हिन्दी मीडिया कर्मी
हिन्दी मीडिया में जो लोग आ रहे हैं, वे भाषा के स्तर पर बेहद दरिद्र हैं. उनकी भाषा का स्तर किसी अच्छे स्कूल में पढ़े आठवीं पास बच्चे के बराबर भी नहीं होता. वैसे, अन्य विषयों में भी उनके ज्ञान का स्तर लगभग यही होता है. इसे बढ़ाने की  संस्थागत व्यवस्था फिलहाल कहीं नहीं है. जो नये युवक हिन्दी मीडिया संस्थानों में आते हैं, उनके पास केवल डिग्री होती है, ज्ञान नहीं. जिस आपाधापी में उनकी शुरुआत होती है, उसके चलते वे कुछ भी नया और सार्थक सीख नहीं पाते. और फिर, जिस तरह, लम्बे समय एक ही जगह पड़ा पत्थर भी एक दिन ‘‘महादेव’’ हो जाता है, उसी तरह ये महानुभाव भी कालान्तर में इतने ‘‘सीनिअर’’ हो जाते हैं कि अपनी नेतृत्वकारी भूमिका के चलते कुछ भी सीखना उनकी श्शानश् के खि़लाफ़ हो जाता है. उल्टे, वे भाषाई अज्ञानता को बढ़ावा देने का काम और ज़्यादा बड़े पैमाने पर करने लगते हैं. किसी भी ‘‘सीनिअर’’ को सम्पादक बनाये जाते समय भाषा-पक्ष तो किसी प्राथमिकता में होता ही नहीं है. नतीजतन, ज़्यादातर हिन्दी सम्पादक हिन्दी के दस वाक्य भी नहीं लिख पायेंगे. हाँ, वे जुगाडू मैनेजरी और पीआर के काम में निष्णात अवश्य होते हैं.
सभी बनना चाहते हैं रिपोर्टर
कोढ़ में खाज यह कि सभी नव आगन्तुक, क्राइम या पॉलिटिकल रिपोर्टर ही बनने पर उतारू होते हैं. कोई भी उप सम्पादक नहीं बनना चाहता. इसके चलते, हिन्दी मीडिया संस्थानों में सम्पादन डेस्क निरन्तर कमज़ोर और हेय होते चले गये, जबकि वे इन संस्थानों की रीढ़ होते हैं. हालात इस कदर बदतर हो गये हैं कि अब तो रिपोर्टरों को ही सम्पादक बनाया जाने लगा है, क्योंकि वे ‘सम्पर्क-सम्पन्न’ जो होते हैं.
लोगों के लिए, लोगों का अख़बार
एक अच्छा अख़बार होने का मतलब है ‘‘लोगों के लिए, लोगों का अख़बार’’. यानि कि हर अख़बार लोगों का हो, महज सत्ता-प्रतिष्ठान या विज्ञापनदाता का न हो. वह लोगों के लिए हो, सत्ता-प्रतिष्ठान या विज्ञापनदाता, या फिर किसी व्यक्ति-विशेष के लिए न हो. लेकिन वस्तुतः ऐसा है नहीं. ऐसा हो, इसके लिए ज़रूरी है कि हम और ज़्यादा समय गंवाये बगैर ऐसे उपाय करें, जिनके कार-आमद नतीज़े हासिल हों, और जो हिन्दी पत्रकारिता के भविष्य को उज्ज्वल करें.
बने मीडिया नियामक आयोग
जब हम न्यायपालिका को और ज़्यादा जवाबदेह और पारदर्शी बनाने के लिए कमर कस चुके हैं, तो फिर मीडिया को ही पवित्र गाय मानकर क्यों छोड़ दिया जाये? कहने के लिए, अख़बारों की ज्यादती के शिकार पाठकों और सरकारों के मनमाने रवैये से पीड़ित अख़बारों की व्यथा-कथा सुनने के लिए एक संस्था है प्रेस कौंसिल. लेकिन यह अधिकारदृविहीन संस्था एक तमाशा-मात्र बनकर रह गयी है. यह दोषियों को सिर्फ़ चेतावनी दे सकती है, दण्ड देने का हक़ इसे नहीं है. मीडिया की दशा और दिशा  सुधारने के उपायों की कड़ी में सबसे पहले एक स्वायत्तशासी, उच्चाधिकार-प्राप्त मीडिया नियामक आयोग बनाया जाना चाहिए, जो निर्वाचन आयोग की तरह, अखिल भारतीय स्तर पर काम करे; और प्रदेशों में भी इसका राज्य स्तरीय ढांचा हो. यह आयोग ज़िला स्तर पर निगरानी-प्रकोष्ठ गठित करे, जो शुरूआती स्तर पर पाठकों की शिकायतों की जाँच-पड़ताल करके उन्हें आगामी सुनवाई के लिए अग्रेषित कर सकें. इससे पाठकीय सरोकारों के प्रति अख़बारों की जवाबदेही बढ़ेगी. यह निकाय मुख्य रूप से दो काम करे. एक तो यह कि वह बेलगाम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से होड़ ले रहे प्रिंट मीडिया द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता पर रोक लगाये.चूँकि हमारे पाठक संगठित नहीं हैं, इसलिए उनके दीर्घकालिक सरोकारों से जुड़ी सामग्री के लिए इस नियामक आयोग की भूमिका अत्यन्त सार्थक रहेगी. वह निकाय तय करे कि कोई अख़बार चित्रों या अन्य सामग्री (‘लिंग वर्धक यन्त्र’, ‘कण्डोम के मजे’, ‘फुल बॉडी मसाज’, ‘दोस्ती करो और दिल खोलकर बातें करो’ आदि) के जरिये अश्लीलता न परोसे. दूसरे, उक्त नीति नियामक आयोग का दायित्व यह सुनिश्चित करना भी हो कि किसी भी अख़बार में, विज्ञापनों के लिए दिये जा रहे स्थान तथा समाचारों को मिलने वाले स्थान का अनुपात तर्कसंगत हो. जो अनुपात तय किया जाये, उसका पालन भी हो.
संयुक्त चयन प्रणाली
जिस तरह सभी बैंकों के लिए संयुक्त चयन प्रणाली है, उसी तरह से मीडिया के विभिन्न संस्थानों के लिए भी संयुक्त चयन प्रणाली लागू की जानी चाहिए. वेतन, प्रशिक्षण और चयन दृ इन तीनों ही स्तरों पर संजीदगी से एक निर्दाेष प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है.
वक्त का तक़ाज़ा है एक पाठकीय यज्ञ
एक बड़े अँगरेज़ी अख़बार के सम्पादक ने पदमुक्त होने के अवसर पर लिखे अपने ‘विदा-लेख’ में पाठकों को ‘मी लॉर्ड’ से सम्बोधित किया. कितना अच्छा लगता है पाठक को दिया गया यह ‘मी लॉर्ड’ का सम्बोधन! लेकिन इसी के साथ दुःख भी होता है कि हमारे ज्यादातर अख़बार अपनी कथनी और करनी के जरिये पाठकों के इस सम्मान की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं. हमें, जागरूक पाठक होने के नाते, अपनी इस अपमानजनक स्थिति को ख़त्म करना होगा. इसके लिए एक पाठकीय यज्ञ वक्त का तक़ाज़ा है, जिसमें समिधा डालना हम सभी का युग-धर्म है. तभी पत्रकारिता की उज्ज्वल सम्भावनाओं के जगमग टापू फैलते नज़र आयेंगे. अगर बदकिस्मती से ऐसा न हो सका तो, यही कहना पड़ेगा -
’’बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी है!
हर शाख़ पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा!!’’

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ओमप्रकाश गौड़ (वरिष्ठ पत्रकार)
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